Wednesday 9 September 2020

I share a review of my Jijivisha (collection of 25 original Sanskrit short stories) reviewed by Dr.Arun Kumar Nishad and posted in *Bilingual monthly journal published from Pittsburgh, USA :: पिट्सबर्ग अमेरिका से प्रकाशित द्वैभाषिक मासिक *

 

‘जिजीविषा’ कथा संग्रह में वर्णित सामाजिक समस्यायें


मनुष्य का जीवन घातों-प्रतिघातों का निलय है। वह जिस समाज में रहता है उसमें अच्छाई –बुराई दोनों हैं। प्राचीनकाल से ही समाज में अनेक सामाजिक-समस्यायें व्याप्त थीं। आधुनिककाल के भौतिकतावादी इस समाज में ये समस्यायें आज और बढ़ गयी हैं। इन्हीं सब समस्याओं को डॉ. वनमाली विश्वाल ने अपनी कहानियों में अंकित किया है। डॉ. वनमाली विश्वाल का जन्म उड़ीसा राज्य के याजपुर जनपद में सन् 1936 ई. को हुआ है।सम्प्रति डॉ. विश्वाल, गंगानाथ झा परिसर इलाहाबाद में प्रोफेसर पद पर कार्यरत हैं। इनकी कथाओं की प्रमुख सामाजिक समस्यायें अधोलिखित हैं -    
‘धूमायितं कैशोरम्’ एक ऐसे गरीब बालक (मोनू) की कथा है, जो गली-गली जाकर आईसक्रीम बेंचता है। इस कहानी में लेखक ने यह यह दिखाया है कि- बालक अवश्य ही गरीब है, परन्तु वह स्वाभिमानी है। वह हराम की कमाई के स्थान पर हलाल की कमाई पसन्द करता है। धनी व्यक्ति जब उसे फेंककर पैसे देता है तो वह उसे नहीं लेता है।

“एतत्  रुप्यकद्वयं भवान् स्वपार्श्वे एव स्थापयतु। एतेन अपरं विशालं भवनं निर्माय सुखेन तिष्ठतु। अस्माकं कार्यं तु यथाकथमपि चलिष्यति। भवादृशा: तु मनुष्या:। वयं तु कीटसदृशा:। अस्माकं जीवनेन, मरणेन च किम्। भवादृशा: न कमापि दरिद्रं स्वावलम्बिनं भवितुं प्रेरयन्ति। अपितु एवमेव रूप्यकं रुप्यकद्वयं वा प्रदाय भिक्षुकान् मिर्मान्ति। एतदपि रुप्यकद्वयं गृहीत्वा अस्मिन् भवने तलद्वयं योजयतु।”1

‘मध्येस्रोत:’ कहानी में एक युवती की कथा है। जो अपने पति के बाहर रहने पर एक दुकानदार के झांसे में आकर अपनी इज्जत गँवा बैठती है।

“भोजन-समये अपरिचित: स: अतिथि: नाचम्माया यौवनोद्दीप्तं रूपं पिबन्नासीत् स्वचक्षुर्भ्याम्। नाचम्मा यद्यपि कृष्णवर्णा काचित् सुन्दरी तु आसीत्।2

लेखक: बनमाली बिश्वाल
इसी कथा में लेखक लिखता है कि- गरीबी पेट भरने के लिए क्या नहीं करवा देती। नाचम्मा अपनी भूख मिटाने वाले पुरुष के साथ सम्बन्ध में बनाने में कोई आपत्ति नहीं करती।

“येन एतावद् व्ययीकृत्य तस्या: उदरक्षुधा शामिता, तस्य-क्षुधाया: उपशमनं तस्या: कर्तव्यं भवेत्। सा निर्विवादम् तस्मै तमधिकारं दत्तवती। कियत्कालं यावत् पत्युरनागमन-कष्टम् अविगणय्य सा यौवनसुखमुपभुक्तवती।3

‘जिजीविषा’ एक वृद्धा (रेवती) की कथा है जो अपने पोते-पोतियों की भूख मिटाने के लिए 70 वर्ष की अवस्था में भी कार्य कर रही है।

“जनानाम्  एतादृशानि संवेदनापूर्णानि वचांसि श्रावं श्रावं तस्या: कर्णौ पक्वौ जातौ। परन्तु एताभि: शुष्क-संवेदनाभि: किं कस्य उदरं भरिष्यति। अत: ताभि: शुष्कसंवेदनाभि: किं प्रयोजनं ?” 4

और भी-
“भ्रामं भ्रामं सा एवं श्रान्ता आसीत् यत् अग्रे चलितुं तस्या: साहसं न अभवत्। समीपस्थात् नलात् जलं पीत्वा तत्रैव उपविश्य सा चातकवत् सर्वान् पश्यन्ती आसीत् यत् कदाचित् कश्चित् दयापर वश: सन् तस्मै किमपि कार्यम् अवश्यं दास्यति इति।”5

‘स्वाभिमान’ कहानी में परेश अपने वृद्ध माता-पिता तथा पत्नी और बच्चे को छोड़कर दूसरा विवाह कर लेता है। इस पर परेश के पिता भवनाथ कहते हैं कि ऐसे सन्तान से तो बिना सन्तान के रहना अच्छा है, जो बुढ़ापे में सुख देते ने स्थान पर दुःख देता हो-
“ईश्वर यदि कस्मै सन्तानं न ददाति चेत उत्तमम्। परन्तु वृद्धावस्था सन्तानवियोग: कथमपि न सोढुं योग्य:।”6

‘सम्मोहन’ में एक ठग की कथा है जो बाबा बनकर महिलाओं की इज्जत से खेलता है। आज के इस समाज में इस तरह के ढोंगी बाबाओं की कमी नहीं है। इस प्रकार की घटनाएँ आये दिन समाचार पत्रों में देखने सुनने को मिलती हैं। ‘अपूर्व त्याग:’ में समाज में तेजी से बढ़ रही पच्छिमी सभ्यता के दोषों को दिखया गया है। ‘वंशरक्षा’ में भ्रूण हत्या जैसे पापकर्म को दिखया गया है।

‘भिन्ना पृथ्वी’ कहानी सुशीला नामक युवती की कहानी है, जो मादक पदार्थों के सेवन के कारण अपना सब कुछ खो देती है। आज के समाज में युवाओं में नशे की लत बहुत तेजी से बढ़ रही है। जो समाज के लिए बहुत ही घातक है। आज अधिकतर यह देखा जा रहा है कि- जितने भी असामाजिक तत्त्व हैं वे किसी-न-किसी नशे के आदी हैं।

“सुशीला तू प्रतिदिनं नूतनै: पुरुषै: सह स्वपिति। सा स्वमादक-द्रव्यस्य व्यवस्थायै तथा आचरति अपि।”7

‘नीलाचल:”  कहानी सविता नामक युवती की कहानी है। जो ग्राम प्रमुख के झूठे प्रेमजाल में फँसकर अवैध सन्तान को जन्म देती है।आज लोग पदोन्नति के नाम पर, नौकरी दिलाने के नाम पर, शादी करने के नाम पर युवतियों को ठग रहे हैं। जो समाज के लिए एक अभिशाप जैसा है। ‘पापगर्भ’ में सत्यवती नामक एक युवती की कहानी है, जो अपने स्वच्छन्द आचरण के कारण गर्भवती हो जाती है और अपने इस पापकर्म को छुपाने के लिए अपने पुत्र का नाम भगवान के नाम पर जगन्नाथ रखती है। वह समाज में यह प्रचारित करवाती है कि- मेरा यह पुत्र भगवान के प्रसाद के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ है। यह समाज में फैल रहे अनैतिक सम्बन्धों का परिणाम है। ‘कथा कथात्वमागतम्’ एक गरीब युवती की कथा है। ‘नि: सङ्गं’ कथा एक वृद्ध रिक्शा चालक की कथा है। बुढ़ापे में पेट की आग शान्त करने के लिए वह रिक्शा खींच रहा है। आज भी समाज में इस तरफ के पात्र मौजूद हैं।

अरुण कुमार निषाद 
“मम स्वास्थ्येन किम्। मम परिवारस्य कृते तु मम उपार्जनम् एक अधिकम् उपयोगि। पुत्रं त्यजतु, मम धर्मपत्नी अपि न विश्वसिति यत् अहम् अस्वस्थोऽस्मि। सा एवम् आक्षिपति यत् अहं रिक्साचालनात् मुक्तिं प्राप्तुं, पुत्रस्य अर्जित खादितुं च नाटकं कुर्वन्नास्मि। मम पुत्रोऽपि तथैव वदति। स: वदन्नस्ति यत् स: एतावत् विशालं परिवारम् एकाकी भोजयितुं न शक्नोति। अत: अहमपि यत् किञ्चित् उपार्जयेयम् इति तस्य इच्छा। अधिकं च भवति चेत् अहं स्वपरिवारस्य (अर्थात् मम पत्न्याश्च) व्ययं निर्वहेयमिति स: मां प्रेरयन्नास्ति। मम त्यजतु, भवान् उपविशतु यथाकथञ्चिद् भवन्तं प्रापयिष्यामि। एवं रिक्सां चालयन् यदा मरिष्यामि तदैव मे मुक्ति:।”8

‘मानवात् दानवं प्रति’ कहानी एक ऐसे युवक की कहानी है जो अपनी कम्पनी के प्रमोशन के लिए अपनी पत्नी तक को अपने बॉस के साथ सोने पर मजबूर कर देता है।

इस प्रकार हम देखते है कि- आज समाज में जो भी घट रहा है वह लेखकों की लेखनी से बच नहीं पा रहा है। सच भी है कि- “साहित्य समाज का दर्पण है।” समाज की लगभग सभी बुराईयों को कहानीकार ने अपनी कलम से हुबहू उतार दिया है। कोई भी पक्ष उनकी सूक्ष्म दृष्टि से बच नहीं पाया है। डॉ. विश्वाल ने वर्ग-संघर्ष, वर्ग-भेद, अन्धविश्वास, दहेजप्रथा, कन्याभ्रूणहत्या, आतंकवाद, बेरोजगारी, अपृश्यता, नारी-अस्मिता, परम्परा और आधुनिकता का संघर्ष, आदि से जुड़ी असंख्य सामाजिक समस्याओं का वर्णन पूरी संवेदनशीलता के साथ अपनी कथाओं में किया है।
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[1]जिजीविषा, डॉ. वनमाली विश्वाल, पद्मजा प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 2006 ई., पृष्ठ संख्या 21   
[2]जिजीविषा, डॉ. वनमाली विश्वाल, पद्मजा प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 2006 ई., पृष्ठ संख्या 26  
[3]जिजीविषा, डॉ. वनमाली विश्वाल, पद्मजा प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 2006 ई., पृष्ठ संख्या 27  
[4]जिजीविषा, डॉ. वनमाली विश्वाल, पद्मजा प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 2006 ई., पृष्ठ संख्या 34  
[5]जिजीविषा, डॉ. वनमाली विश्वाल, पद्मजा प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 2006 ई., पृष्ठ संख्या 34  
[6]जिजीविषा, डॉ. वनमाली विश्वाल, पद्मजा प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 2006 ई., पृष्ठ संख्या 40  
[7]जिजीविषाडॉ. वनमाली विश्वालपद्मजा प्रकाशन, इलाहाबादप्रथम संस्करण 2006 ई.पृष्ठ संख्या 64  
[8]जिजीविषाडॉ. वनमाली विश्वालपद्मजा प्रकाशन, इलाहाबादप्रथम संस्करण 2006 ई.पृष्ठ संख्या 112  
शोधछात्र, संस्कृत  तथा प्राकृत भाषा विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ 

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