Thursday 27 August 2020

 I share a review of my Patralayah (Sanskrit renderings of Vishvakavi Ravindranath Tagore's Bengali drama Dakaghar) reviewed by Dr. Parambashree Yogamaya and posted in Vagarthaadhunikasanskrit.blogspot.com by Dr. Kaushala Tiwari


पत्रालयः - बांग्ला से अनूदित नाटक

आधुनिक संस्कृत का एक पक्ष अनुवाद का भी है, जिस पर हम यथासम्भव चर्चा करते आये हैं | विदेशी और भारतीय भाषाओं की अनुपम कृतियों का रसास्वादन हम अनुवाद के माध्यम से कर रहे हैं | कन्नड़, ओड़िया, हिंदी, मराठी, राजस्थानी आदि भाषाओं के साथ बांग्ला जैसी समृद्ध भाषा की रचनाएं संस्कृत में रूपांतरित हुई हैं | नारायण दाश ने "संस्कृतसाहित्ये पश्चिम वंगस्यावदानम्" ग्रन्थ में बंगाल के योगदान को वर्णित किया  है | कथा भारती द्वारा प्रकाशित "अनूदितं रवींद्रसाहित्यम्" में रवींद्र नाथ टैगौर रचित साहित्य के संस्कृत अनुवाद को 29 आलेखों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है | इन दोनों पुस्तकों का यथासम्भव परिचय ब्लॉग पर उपलब्ध करवाया जाएगा| रवींद्र नाथ टैगौर के एक नाटक डाकघर का संस्कृत अनुवाद पत्रालय: नाम से प्रकाशित हुआ है | यह अनुवाद बनमाली बिश्वाल ने किया है | इसका परिचय प्रस्तुत कर रही हैं पराम्बा श्रीयोगमाया, जो स्वयं भी एक अच्छी अनुवादक हैं |




कृति - पत्रालयः 
विधा - अनूदित संस्कृत नाटक

मूल रचना – विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर
संस्कृत अनुवाद – प्रोफेसर बनमाली बिश्वाल
सम्पर्क सूत्र - 7839908471
प्रकाशक – पद्मजा प्रकाशन, 57, वसन्त विहार, झूसी, इलाहाबाद 211019,
मूल्य – Rs. 300/-
प्रथम संस्करण – 2015
पृष्ठ संख्या – 90 

             प्रोफेसर बनमाली बिश्वाल कवि, कथाकार, अनुवादक तथा समीक्षक के रूप में संस्कृत जगत् में सुपरिचित हैं, जो की मूलतः वैयाकरण हैं । सहज व सरल संस्कृत में संवेदनाओं को उतारना उनके लेखन का विशेषत्व रहा है । समकालिक संस्कृत रचनाओं पर उन्होंने अपने छात्र-छात्राओं से शोध कार्य भी करवाया है । एक कवि के हिसाब से उनका काव्य सङ्गमेनाभिरामा (1996)  छन्दों में छन्दायित है वैसे व्यथा (1997), ऋतुपर्णा (1999), प्रियतमा (1999) आदि मुक्तछन्द से अनुरणित है । कथा साहित्य में संवेदनाओं से धनी उनकी रचनायें पाठक को समाज की स्थिति पर सोचने के लिए विवश कर देती हैं । वर्तमान में प्रोफेसर बिश्वाल राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान के श्रीरघुनाथ कीर्त्ति परिसर, देवप्रयाग में व्याकरण विभाग के आचार्य और विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत है । उनके और उनके सहयोगिओं के निरन्तर प्रयास और अदम्य उद्योग से समकालिक संस्कृत सर्जनाओं की पहली अनूठी समीक्षा पत्रिका 1999 जनवरी से प्रकाशित होती आ रही थी ।  इसका प्रकाशन फिर से हो ऐसी संस्कृत सर्जकों की आशा है ।


    प्रोफेसर बिश्वाल के रचना संसार में अनूदित नाटक भी सम्मिलित है । रवीन्द्रनाथ टैगोर की बंग्ला रचना ‘डाकघर’  का  संस्कृत अनुवाद एक भिन्न स्वाद की पाठकीय रुचि जगाता है । नाटक का सविशेष तथ्य स्वयं अनुवादक द्वारा प्रारम्भ में दे रखा है । एक चपल और चञ्चल मति बालक का मनोविज्ञान कैसे गम्भीर दार्शनिकता की ओर संकेत करता है – यह विषय इस नाटक में मुख्य रूप से वर्णित है । अमल नाम का एक किशोर अस्वस्थता के कारण घर में बन्द रहने के लिए वैद्य से निर्देशित है । पितृ - मातृ हीन अमल पालक पिता माधवदत्त और उनकी पत्नी के स्नेह से प्रतिपालित है । पर सूर्य किरण और बाहर की वायु उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । वैद्य के द्वारा वह निषिद्ध है बाहर जाने के लिए । उसका शिशु मन तरसता है प्राङ्गण में घुमने के लिए , दही बेचने वाले से दही बेचना सीखने के लिए, मित्रों के साथ खेलने के लिए, फकीर से भिक्षाटन सीखने के लिए, पुलिस से नागरिकों को सचेत कराने की कला सीखने के लिए, उसकी बालिका मित्र सुधा के साथ फूल संग्रह के लिए और अन्त में राजा का पत्रवाहक बनने के लिए । जिन जिन पात्रों के साथ उसकी बात होती है उन पात्रों की गति को वह चाहता है क्योंकि उसकी गति निषिद्ध है ।

   यद्यपि यह एक सामान्य बातचीत और एक व्याधित बालक का मृत्यु का उपस्थापन है पर इस नाटक का अन्तर्निहित अर्थ कुछ गम्भीर है । यहाँ अमल का मन पर्वत, नदी, सुनील आकाश, नक्षत्र और ध्रुव तारा पर निबद्ध है । इस मर्त्य में एक क्षणभङ्गुर शरीर को धारण कर के जी रहा है कब उसको राजा से पत्र मिलेगा । यहाँ राजा शब्द परमात्मा का प्रतीक है । जब संसार से क्रमशः उसका दिन कम होते जा रहे हैं वह सबको पूछता है कि क्या आज पत्रालय में राजा से मेरे नाम का कोई पत्र आया है । आरक्षियों का मुखिया यह बात जानकर ईर्ष्या से भर जाता  है कि एक सामान्य परिवार राजा से सम्पर्क रख रहा है ! बुद्ध को जैसे   सन्यासी  का  चरित्र ने प्रभावित किया था वैसे ही अमल को इस नाटक में एक फकीर प्रभावित करता है । वह उसके साथ अचिन्त्य भ्रमण करके, नदी से पानी पीकर फिर नदी के आर पार जाने की प्रबल इच्छा जताता है । फकीर की तरह संसार बन्धन शून्य है उसका मन । उसका शिशु मन कितना गहन तथ्य बोलता है जिसको अनुवादक ने कहा है –

अस्माकं गृहस्य समीपे उपवेशनेन सः दूरस्थः पर्वतः दृश्यते । मम महती इच्छा भवति यदहं तमुल्लङ्घ्य गच्छेयम् ।... ... अहं तु एतत् सर्वं सम्यग् जानामि यत् पृथिवी भाषितुं न शक्नोति । अतः एवमेव नील-गगनमुद्दिश्य हस्तौ उत्थाय आह्वयति । बहुदूरे ये जनाः गृहाभ्यन्तरे उपविशन्ति तेऽपि निःसङ्ग – मध्याह्ने वनोपान्ते  उपविश्य  एतमाह्वानं  श्रोतुं  शक्ष्यन्ति । अहं  तु विचारयामि यत् पण्डिताः एतत् श्रोतुं न शक्नुवन्ति । (प्रथमदृश्यम्, पृ. सं. 38)

आरक्षी के साथ अपने कमरा जे झरोके से बात करते समय कहता है कि –

कश्चन वदति समयः अतिक्रामन्नस्ति इति । कश्चन अपरो वदति समयः न सञ्जातः । वस्तुतः तव घण्टानादेनैव समयो भविष्यति किल ! (द्वितीयदृश्यम्, पृ. सं. 49) ... तं देशमहं मन्ये न कोऽपि दृष्ट्वा आगतोऽस्ति । मम महती इच्छा भवति यदहं तेन समयेन साकं गच्छेयम् । यस्य देशस्य तथ्यं न कोऽपि जानाति । स देशस्तु बहुदूरे ... ...... ......( द्वितीयदृश्यम्, पृ. सं. 50)

अमल की बालिका मित्र कैसे उसकी मनोयात्रा में सहायिका बनती है, यह भी नाटक में प्रस्तुत किया गया है | उसके साथ जब बाहर जाने के लिए अमल इच्छा प्रकट करता है तब सुधा कहती है -

अहा .. तर्हि त्वं बहिर्न आगच्छ । वैद्यस्य निर्देशः पालयितव्यः । चपलता न करणीया । अन्यथा जनास्त्वा दुष्ट इति वदिष्यन्ति । बहिर्दृष्ट्वा ते मनः व्याकुलितमस्ति । अतः तव अर्धं पिहितं द्वारं पूर्णरूपेण पिदधामि । (द्वितीयदृश्यम्, पृ. सं. 57) 

 बाल सुलभ वचनों से जीव को अंतर्मुखी करके चंचल मन को रोकने का संकेत यहां दिया गया है|

अपनें प्रकोष्ठ में सम्पूर्ण बन्द रहने की अवस्था में वह केवल राजा के पत्र और पत्रवाहक की प्रतीक्षा करता है । फकीर से मिलने के लिए अधीर हो उठता है । अन्त में उसके पितामह फकीर का वेष धारण करके उससे वार्तालाप करते हैं । अन्तिम समय में पत्र आता है शून्य अक्षर होकर साथ साथ राजा उससे मिलने आएंगे यह खबर भी आती है  और वह कहता है की मेरे लिए अब सब उन्मुक्त हो गया । मुझे  कोई कष्ट नहीं है । मैं अन्धकार के उस पार नक्षत्रों को देख रहा हूँ । (तृतीयदृश्यम्, पृ. सं. 86) अन्त में अमल को अमर बनाने के लिए सुधा बोलती है कि उसके कान में एक बात आप लोग बाल दीजिए, सुधा उसे नहीं भूली हैं ।

तदा यूयमेतस्य कर्णयोः एकां वार्तां वदिष्यथ । ... कथयथ यत् सुधा त्वां न विस्मृतवती इति । (तृतीयदृश्यम्, पृ. सं. 90) यहाँ पर सुधा जो शशि नामक मालाकार की पुत्री है अमरता का प्रतीक है ।

यद्यपि नाट्यकार कुछ अंश में पाश्यात्य नाटकों से प्रभावित है जो प्रायः दुःखान्त ही होते हैं फिर भी भारतीयता  को  विश्वकवि नहीं भूले हैं । अतः उनके नाटक का अन्तः विभु प्राप्ति में सुखान्त को दर्शाता है । सांसारिक मिलना न मिलना के छायावाद के साथ साथ सृष्टि के राजा के साथ मिलने की वार्ता रहस्यवाद को भी उजागर करता है इस नाटक में ।

डॉ. पराम्बा श्रीयोगमाया


सहायक आचार्य, स्नातकोत्तर वेद विभाग, श्रीजगन्नाथ संस्कृत   विश्वविद्यालय, श्रीविहार, पुरी 752003, ओडिशा 
सम्पर्क सूत्र - 8917554392

No comments:

Post a Comment