Thursday 27 August 2020

 I share a review of my Patralayah (Sanskrit renderings of Vishvakavi Ravindranath Tagore's Bengali drama Dakaghar) reviewed by Dr. Parambashree Yogamaya and posted in Vagarthaadhunikasanskrit.blogspot.com by Dr. Kaushala Tiwari


पत्रालयः - बांग्ला से अनूदित नाटक

आधुनिक संस्कृत का एक पक्ष अनुवाद का भी है, जिस पर हम यथासम्भव चर्चा करते आये हैं | विदेशी और भारतीय भाषाओं की अनुपम कृतियों का रसास्वादन हम अनुवाद के माध्यम से कर रहे हैं | कन्नड़, ओड़िया, हिंदी, मराठी, राजस्थानी आदि भाषाओं के साथ बांग्ला जैसी समृद्ध भाषा की रचनाएं संस्कृत में रूपांतरित हुई हैं | नारायण दाश ने "संस्कृतसाहित्ये पश्चिम वंगस्यावदानम्" ग्रन्थ में बंगाल के योगदान को वर्णित किया  है | कथा भारती द्वारा प्रकाशित "अनूदितं रवींद्रसाहित्यम्" में रवींद्र नाथ टैगौर रचित साहित्य के संस्कृत अनुवाद को 29 आलेखों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है | इन दोनों पुस्तकों का यथासम्भव परिचय ब्लॉग पर उपलब्ध करवाया जाएगा| रवींद्र नाथ टैगौर के एक नाटक डाकघर का संस्कृत अनुवाद पत्रालय: नाम से प्रकाशित हुआ है | यह अनुवाद बनमाली बिश्वाल ने किया है | इसका परिचय प्रस्तुत कर रही हैं पराम्बा श्रीयोगमाया, जो स्वयं भी एक अच्छी अनुवादक हैं |




कृति - पत्रालयः 
विधा - अनूदित संस्कृत नाटक

मूल रचना – विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर
संस्कृत अनुवाद – प्रोफेसर बनमाली बिश्वाल
सम्पर्क सूत्र - 7839908471
प्रकाशक – पद्मजा प्रकाशन, 57, वसन्त विहार, झूसी, इलाहाबाद 211019,
मूल्य – Rs. 300/-
प्रथम संस्करण – 2015
पृष्ठ संख्या – 90 

             प्रोफेसर बनमाली बिश्वाल कवि, कथाकार, अनुवादक तथा समीक्षक के रूप में संस्कृत जगत् में सुपरिचित हैं, जो की मूलतः वैयाकरण हैं । सहज व सरल संस्कृत में संवेदनाओं को उतारना उनके लेखन का विशेषत्व रहा है । समकालिक संस्कृत रचनाओं पर उन्होंने अपने छात्र-छात्राओं से शोध कार्य भी करवाया है । एक कवि के हिसाब से उनका काव्य सङ्गमेनाभिरामा (1996)  छन्दों में छन्दायित है वैसे व्यथा (1997), ऋतुपर्णा (1999), प्रियतमा (1999) आदि मुक्तछन्द से अनुरणित है । कथा साहित्य में संवेदनाओं से धनी उनकी रचनायें पाठक को समाज की स्थिति पर सोचने के लिए विवश कर देती हैं । वर्तमान में प्रोफेसर बिश्वाल राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान के श्रीरघुनाथ कीर्त्ति परिसर, देवप्रयाग में व्याकरण विभाग के आचार्य और विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत है । उनके और उनके सहयोगिओं के निरन्तर प्रयास और अदम्य उद्योग से समकालिक संस्कृत सर्जनाओं की पहली अनूठी समीक्षा पत्रिका 1999 जनवरी से प्रकाशित होती आ रही थी ।  इसका प्रकाशन फिर से हो ऐसी संस्कृत सर्जकों की आशा है ।


    प्रोफेसर बिश्वाल के रचना संसार में अनूदित नाटक भी सम्मिलित है । रवीन्द्रनाथ टैगोर की बंग्ला रचना ‘डाकघर’  का  संस्कृत अनुवाद एक भिन्न स्वाद की पाठकीय रुचि जगाता है । नाटक का सविशेष तथ्य स्वयं अनुवादक द्वारा प्रारम्भ में दे रखा है । एक चपल और चञ्चल मति बालक का मनोविज्ञान कैसे गम्भीर दार्शनिकता की ओर संकेत करता है – यह विषय इस नाटक में मुख्य रूप से वर्णित है । अमल नाम का एक किशोर अस्वस्थता के कारण घर में बन्द रहने के लिए वैद्य से निर्देशित है । पितृ - मातृ हीन अमल पालक पिता माधवदत्त और उनकी पत्नी के स्नेह से प्रतिपालित है । पर सूर्य किरण और बाहर की वायु उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । वैद्य के द्वारा वह निषिद्ध है बाहर जाने के लिए । उसका शिशु मन तरसता है प्राङ्गण में घुमने के लिए , दही बेचने वाले से दही बेचना सीखने के लिए, मित्रों के साथ खेलने के लिए, फकीर से भिक्षाटन सीखने के लिए, पुलिस से नागरिकों को सचेत कराने की कला सीखने के लिए, उसकी बालिका मित्र सुधा के साथ फूल संग्रह के लिए और अन्त में राजा का पत्रवाहक बनने के लिए । जिन जिन पात्रों के साथ उसकी बात होती है उन पात्रों की गति को वह चाहता है क्योंकि उसकी गति निषिद्ध है ।

   यद्यपि यह एक सामान्य बातचीत और एक व्याधित बालक का मृत्यु का उपस्थापन है पर इस नाटक का अन्तर्निहित अर्थ कुछ गम्भीर है । यहाँ अमल का मन पर्वत, नदी, सुनील आकाश, नक्षत्र और ध्रुव तारा पर निबद्ध है । इस मर्त्य में एक क्षणभङ्गुर शरीर को धारण कर के जी रहा है कब उसको राजा से पत्र मिलेगा । यहाँ राजा शब्द परमात्मा का प्रतीक है । जब संसार से क्रमशः उसका दिन कम होते जा रहे हैं वह सबको पूछता है कि क्या आज पत्रालय में राजा से मेरे नाम का कोई पत्र आया है । आरक्षियों का मुखिया यह बात जानकर ईर्ष्या से भर जाता  है कि एक सामान्य परिवार राजा से सम्पर्क रख रहा है ! बुद्ध को जैसे   सन्यासी  का  चरित्र ने प्रभावित किया था वैसे ही अमल को इस नाटक में एक फकीर प्रभावित करता है । वह उसके साथ अचिन्त्य भ्रमण करके, नदी से पानी पीकर फिर नदी के आर पार जाने की प्रबल इच्छा जताता है । फकीर की तरह संसार बन्धन शून्य है उसका मन । उसका शिशु मन कितना गहन तथ्य बोलता है जिसको अनुवादक ने कहा है –

अस्माकं गृहस्य समीपे उपवेशनेन सः दूरस्थः पर्वतः दृश्यते । मम महती इच्छा भवति यदहं तमुल्लङ्घ्य गच्छेयम् ।... ... अहं तु एतत् सर्वं सम्यग् जानामि यत् पृथिवी भाषितुं न शक्नोति । अतः एवमेव नील-गगनमुद्दिश्य हस्तौ उत्थाय आह्वयति । बहुदूरे ये जनाः गृहाभ्यन्तरे उपविशन्ति तेऽपि निःसङ्ग – मध्याह्ने वनोपान्ते  उपविश्य  एतमाह्वानं  श्रोतुं  शक्ष्यन्ति । अहं  तु विचारयामि यत् पण्डिताः एतत् श्रोतुं न शक्नुवन्ति । (प्रथमदृश्यम्, पृ. सं. 38)

आरक्षी के साथ अपने कमरा जे झरोके से बात करते समय कहता है कि –

कश्चन वदति समयः अतिक्रामन्नस्ति इति । कश्चन अपरो वदति समयः न सञ्जातः । वस्तुतः तव घण्टानादेनैव समयो भविष्यति किल ! (द्वितीयदृश्यम्, पृ. सं. 49) ... तं देशमहं मन्ये न कोऽपि दृष्ट्वा आगतोऽस्ति । मम महती इच्छा भवति यदहं तेन समयेन साकं गच्छेयम् । यस्य देशस्य तथ्यं न कोऽपि जानाति । स देशस्तु बहुदूरे ... ...... ......( द्वितीयदृश्यम्, पृ. सं. 50)

अमल की बालिका मित्र कैसे उसकी मनोयात्रा में सहायिका बनती है, यह भी नाटक में प्रस्तुत किया गया है | उसके साथ जब बाहर जाने के लिए अमल इच्छा प्रकट करता है तब सुधा कहती है -

अहा .. तर्हि त्वं बहिर्न आगच्छ । वैद्यस्य निर्देशः पालयितव्यः । चपलता न करणीया । अन्यथा जनास्त्वा दुष्ट इति वदिष्यन्ति । बहिर्दृष्ट्वा ते मनः व्याकुलितमस्ति । अतः तव अर्धं पिहितं द्वारं पूर्णरूपेण पिदधामि । (द्वितीयदृश्यम्, पृ. सं. 57) 

 बाल सुलभ वचनों से जीव को अंतर्मुखी करके चंचल मन को रोकने का संकेत यहां दिया गया है|

अपनें प्रकोष्ठ में सम्पूर्ण बन्द रहने की अवस्था में वह केवल राजा के पत्र और पत्रवाहक की प्रतीक्षा करता है । फकीर से मिलने के लिए अधीर हो उठता है । अन्त में उसके पितामह फकीर का वेष धारण करके उससे वार्तालाप करते हैं । अन्तिम समय में पत्र आता है शून्य अक्षर होकर साथ साथ राजा उससे मिलने आएंगे यह खबर भी आती है  और वह कहता है की मेरे लिए अब सब उन्मुक्त हो गया । मुझे  कोई कष्ट नहीं है । मैं अन्धकार के उस पार नक्षत्रों को देख रहा हूँ । (तृतीयदृश्यम्, पृ. सं. 86) अन्त में अमल को अमर बनाने के लिए सुधा बोलती है कि उसके कान में एक बात आप लोग बाल दीजिए, सुधा उसे नहीं भूली हैं ।

तदा यूयमेतस्य कर्णयोः एकां वार्तां वदिष्यथ । ... कथयथ यत् सुधा त्वां न विस्मृतवती इति । (तृतीयदृश्यम्, पृ. सं. 90) यहाँ पर सुधा जो शशि नामक मालाकार की पुत्री है अमरता का प्रतीक है ।

यद्यपि नाट्यकार कुछ अंश में पाश्यात्य नाटकों से प्रभावित है जो प्रायः दुःखान्त ही होते हैं फिर भी भारतीयता  को  विश्वकवि नहीं भूले हैं । अतः उनके नाटक का अन्तः विभु प्राप्ति में सुखान्त को दर्शाता है । सांसारिक मिलना न मिलना के छायावाद के साथ साथ सृष्टि के राजा के साथ मिलने की वार्ता रहस्यवाद को भी उजागर करता है इस नाटक में ।

डॉ. पराम्बा श्रीयोगमाया


सहायक आचार्य, स्नातकोत्तर वेद विभाग, श्रीजगन्नाथ संस्कृत   विश्वविद्यालय, श्रीविहार, पुरी 752003, ओडिशा 
सम्पर्क सूत्र - 8917554392

 I share a review of my Patralayah (Sanskrit renderings of Vishvakavi Ravindranath Tagore's Bengali drama Dakaghar) reviewed by Dr. Parambashree Yogamaya and posted in Vagarthaadhunikasanskrit.blogspot.com by Dr. Kaushala Tiwari


पत्रालयः - बांग्ला से अनूदित नाटक

आधुनिक संस्कृत का एक पक्ष अनुवाद का भी है, जिस पर हम यथासम्भव चर्चा करते आये हैं | विदेशी और भारतीय भाषाओं की अनुपम कृतियों का रसास्वादन हम अनुवाद के माध्यम से कर रहे हैं | कन्नड़, ओड़िया, हिंदी, मराठी, राजस्थानी आदि भाषाओं के साथ बांग्ला जैसी समृद्ध भाषा की रचनाएं संस्कृत में रूपांतरित हुई हैं | नारायण दाश ने "संस्कृतसाहित्ये पश्चिम वंगस्यावदानम्" ग्रन्थ में बंगाल के योगदान को वर्णित किया  है | कथा भारती द्वारा प्रकाशित "अनूदितं रवींद्रसाहित्यम्" में रवींद्र नाथ टैगौर रचित साहित्य के संस्कृत अनुवाद को 29 आलेखों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है | इन दोनों पुस्तकों का यथासम्भव परिचय ब्लॉग पर उपलब्ध करवाया जाएगा| रवींद्र नाथ टैगौर के एक नाटक डाकघर का संस्कृत अनुवाद पत्रालय: नाम से प्रकाशित हुआ है | यह अनुवाद बनमाली बिश्वाल ने किया है | इसका परिचय प्रस्तुत कर रही हैं पराम्बा श्रीयोगमाया, जो स्वयं भी एक अच्छी अनुवादक हैं |




कृति - पत्रालयः 
विधा - अनूदित संस्कृत नाटक

मूल रचना – विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर
संस्कृत अनुवाद – प्रोफेसर बनमाली बिश्वाल
सम्पर्क सूत्र - 7839908471
प्रकाशक – पद्मजा प्रकाशन, 57, वसन्त विहार, झूसी, इलाहाबाद 211019,
मूल्य – Rs. 300/-
प्रथम संस्करण – 2015
पृष्ठ संख्या – 90 

             प्रोफेसर बनमाली बिश्वाल कवि, कथाकार, अनुवादक तथा समीक्षक के रूप में संस्कृत जगत् में सुपरिचित हैं, जो की मूलतः वैयाकरण हैं । सहज व सरल संस्कृत में संवेदनाओं को उतारना उनके लेखन का विशेषत्व रहा है । समकालिक संस्कृत रचनाओं पर उन्होंने अपने छात्र-छात्राओं से शोध कार्य भी करवाया है । एक कवि के हिसाब से उनका काव्य सङ्गमेनाभिरामा (1996)  छन्दों में छन्दायित है वैसे व्यथा (1997), ऋतुपर्णा (1999), प्रियतमा (1999) आदि मुक्तछन्द से अनुरणित है । कथा साहित्य में संवेदनाओं से धनी उनकी रचनायें पाठक को समाज की स्थिति पर सोचने के लिए विवश कर देती हैं । वर्तमान में प्रोफेसर बिश्वाल राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान के श्रीरघुनाथ कीर्त्ति परिसर, देवप्रयाग में व्याकरण विभाग के आचार्य और विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत है । उनके और उनके सहयोगिओं के निरन्तर प्रयास और अदम्य उद्योग से समकालिक संस्कृत सर्जनाओं की पहली अनूठी समीक्षा पत्रिका 1999 जनवरी से प्रकाशित होती आ रही थी ।  इसका प्रकाशन फिर से हो ऐसी संस्कृत सर्जकों की आशा है ।


    प्रोफेसर बिश्वाल के रचना संसार में अनूदित नाटक भी सम्मिलित है । रवीन्द्रनाथ टैगोर की बंग्ला रचना ‘डाकघर’  का  संस्कृत अनुवाद एक भिन्न स्वाद की पाठकीय रुचि जगाता है । नाटक का सविशेष तथ्य स्वयं अनुवादक द्वारा प्रारम्भ में दे रखा है । एक चपल और चञ्चल मति बालक का मनोविज्ञान कैसे गम्भीर दार्शनिकता की ओर संकेत करता है – यह विषय इस नाटक में मुख्य रूप से वर्णित है । अमल नाम का एक किशोर अस्वस्थता के कारण घर में बन्द रहने के लिए वैद्य से निर्देशित है । पितृ - मातृ हीन अमल पालक पिता माधवदत्त और उनकी पत्नी के स्नेह से प्रतिपालित है । पर सूर्य किरण और बाहर की वायु उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । वैद्य के द्वारा वह निषिद्ध है बाहर जाने के लिए । उसका शिशु मन तरसता है प्राङ्गण में घुमने के लिए , दही बेचने वाले से दही बेचना सीखने के लिए, मित्रों के साथ खेलने के लिए, फकीर से भिक्षाटन सीखने के लिए, पुलिस से नागरिकों को सचेत कराने की कला सीखने के लिए, उसकी बालिका मित्र सुधा के साथ फूल संग्रह के लिए और अन्त में राजा का पत्रवाहक बनने के लिए । जिन जिन पात्रों के साथ उसकी बात होती है उन पात्रों की गति को वह चाहता है क्योंकि उसकी गति निषिद्ध है ।

   यद्यपि यह एक सामान्य बातचीत और एक व्याधित बालक का मृत्यु का उपस्थापन है पर इस नाटक का अन्तर्निहित अर्थ कुछ गम्भीर है । यहाँ अमल का मन पर्वत, नदी, सुनील आकाश, नक्षत्र और ध्रुव तारा पर निबद्ध है । इस मर्त्य में एक क्षणभङ्गुर शरीर को धारण कर के जी रहा है कब उसको राजा से पत्र मिलेगा । यहाँ राजा शब्द परमात्मा का प्रतीक है । जब संसार से क्रमशः उसका दिन कम होते जा रहे हैं वह सबको पूछता है कि क्या आज पत्रालय में राजा से मेरे नाम का कोई पत्र आया है । आरक्षियों का मुखिया यह बात जानकर ईर्ष्या से भर जाता  है कि एक सामान्य परिवार राजा से सम्पर्क रख रहा है ! बुद्ध को जैसे   सन्यासी  का  चरित्र ने प्रभावित किया था वैसे ही अमल को इस नाटक में एक फकीर प्रभावित करता है । वह उसके साथ अचिन्त्य भ्रमण करके, नदी से पानी पीकर फिर नदी के आर पार जाने की प्रबल इच्छा जताता है । फकीर की तरह संसार बन्धन शून्य है उसका मन । उसका शिशु मन कितना गहन तथ्य बोलता है जिसको अनुवादक ने कहा है –

अस्माकं गृहस्य समीपे उपवेशनेन सः दूरस्थः पर्वतः दृश्यते । मम महती इच्छा भवति यदहं तमुल्लङ्घ्य गच्छेयम् ।... ... अहं तु एतत् सर्वं सम्यग् जानामि यत् पृथिवी भाषितुं न शक्नोति । अतः एवमेव नील-गगनमुद्दिश्य हस्तौ उत्थाय आह्वयति । बहुदूरे ये जनाः गृहाभ्यन्तरे उपविशन्ति तेऽपि निःसङ्ग – मध्याह्ने वनोपान्ते  उपविश्य  एतमाह्वानं  श्रोतुं  शक्ष्यन्ति । अहं  तु विचारयामि यत् पण्डिताः एतत् श्रोतुं न शक्नुवन्ति । (प्रथमदृश्यम्, पृ. सं. 38)

आरक्षी के साथ अपने कमरा जे झरोके से बात करते समय कहता है कि –

कश्चन वदति समयः अतिक्रामन्नस्ति इति । कश्चन अपरो वदति समयः न सञ्जातः । वस्तुतः तव घण्टानादेनैव समयो भविष्यति किल ! (द्वितीयदृश्यम्, पृ. सं. 49) ... तं देशमहं मन्ये न कोऽपि दृष्ट्वा आगतोऽस्ति । मम महती इच्छा भवति यदहं तेन समयेन साकं गच्छेयम् । यस्य देशस्य तथ्यं न कोऽपि जानाति । स देशस्तु बहुदूरे ... ...... ......( द्वितीयदृश्यम्, पृ. सं. 50)

अमल की बालिका मित्र कैसे उसकी मनोयात्रा में सहायिका बनती है, यह भी नाटक में प्रस्तुत किया गया है | उसके साथ जब बाहर जाने के लिए अमल इच्छा प्रकट करता है तब सुधा कहती है -

अहा .. तर्हि त्वं बहिर्न आगच्छ । वैद्यस्य निर्देशः पालयितव्यः । चपलता न करणीया । अन्यथा जनास्त्वा दुष्ट इति वदिष्यन्ति । बहिर्दृष्ट्वा ते मनः व्याकुलितमस्ति । अतः तव अर्धं पिहितं द्वारं पूर्णरूपेण पिदधामि । (द्वितीयदृश्यम्, पृ. सं. 57) 

 बाल सुलभ वचनों से जीव को अंतर्मुखी करके चंचल मन को रोकने का संकेत यहां दिया गया है|

अपनें प्रकोष्ठ में सम्पूर्ण बन्द रहने की अवस्था में वह केवल राजा के पत्र और पत्रवाहक की प्रतीक्षा करता है । फकीर से मिलने के लिए अधीर हो उठता है । अन्त में उसके पितामह फकीर का वेष धारण करके उससे वार्तालाप करते हैं । अन्तिम समय में पत्र आता है शून्य अक्षर होकर साथ साथ राजा उससे मिलने आएंगे यह खबर भी आती है  और वह कहता है की मेरे लिए अब सब उन्मुक्त हो गया । मुझे  कोई कष्ट नहीं है । मैं अन्धकार के उस पार नक्षत्रों को देख रहा हूँ । (तृतीयदृश्यम्, पृ. सं. 86) अन्त में अमल को अमर बनाने के लिए सुधा बोलती है कि उसके कान में एक बात आप लोग बाल दीजिए, सुधा उसे नहीं भूली हैं ।

तदा यूयमेतस्य कर्णयोः एकां वार्तां वदिष्यथ । ... कथयथ यत् सुधा त्वां न विस्मृतवती इति । (तृतीयदृश्यम्, पृ. सं. 90) यहाँ पर सुधा जो शशि नामक मालाकार की पुत्री है अमरता का प्रतीक है ।

यद्यपि नाट्यकार कुछ अंश में पाश्यात्य नाटकों से प्रभावित है जो प्रायः दुःखान्त ही होते हैं फिर भी भारतीयता  को  विश्वकवि नहीं भूले हैं । अतः उनके नाटक का अन्तः विभु प्राप्ति में सुखान्त को दर्शाता है । सांसारिक मिलना न मिलना के छायावाद के साथ साथ सृष्टि के राजा के साथ मिलने की वार्ता रहस्यवाद को भी उजागर करता है इस नाटक में ।

डॉ. पराम्बा श्रीयोगमाया


सहायक आचार्य, स्नातकोत्तर वेद विभाग, श्रीजगन्नाथ संस्कृत   विश्वविद्यालय, श्रीविहार, पुरी 752003, ओडिशा 
सम्पर्क सूत्र - 8917554392

 Lord Jagannatha, worshipped as Darubrahma at Nilachala (Puri) is lord Shrikrishna himself. I am glad to share a review of my Darubrahma ( Sanskrit songs based on the glorification of lord Jagannath) by Dr. Parambashree Yogamaya posted in Vagarthaadhunikasanskrit.blogspot.com by Dr. Kaushala Tiwari during rathayatra this year. I thank both of them for their respective efforts


दारुब्रह्म - संस्कृत में लिखित गेयतापूर्ण भक्ति-गीतिकविताओं का संग्रह

कृति – दारुब्रह्म (The Wooden Deity) 
[ओडिआ भजनों के छाया पर संस्कृत में लिखित गेयतापूर्ण भक्ति-गीतिकविताओं का संग्रह]
कवि – डा. बनमाली बिश्वाल
प्रकाशक – पद्मजा प्रकाशन, 48/4 A, मास्टर जहरुल हसन् रोड, पुरानी सब्जी मण्डी, कटरा, इलाहाबाद  – 211002
प्रकाशन वर्ष – 2001,
मूल्य – Rs. 100/-
पृ. सं. – 120

आज आषाढ माह की शुक्ल द्वितीया तिथि है। ओडिशा राज्य की पुरी नगरी में अवस्थित महाप्रभु श्रीजगन्नाथ अपने अग्रज बलभद्र देव और बहन सुभद्रा देवी के साथ अपने जन्मवेदि को नव दिनात्मक यात्रा में जाते हैं । इस यात्रा को रथयात्रा, घोषयात्रा, नव दिनात्मक यात्रा, अन्तर्वेदि यात्रा, गुण्डिचा यात्रा (राणी गुण्डिचा के घर को जाते हैं इसलिए) आदि नाम से जाना जाता हैं । हर साल 10-15 लाख तक लोग इस समारोह में सम्मिलित होते हैं । लौटने के बाद आषाढ शुक्ल एकादशी की तिथि में श्रीमन्दिर के सामने सुसज्जित रथों के ऊपर स्वर्ण आभूषणों से श्रीविग्रहों को आभूषित किया जाता है । साल भर के 32-33 वेशों में से यह सबसे आकर्षक वेश हैं और गर्भगृह के बाहर रथों पर कड़ी सुरक्षा के साथ किया जाता हैं । वर्तमान अवस्थित श्रीजगन्नाथ मन्दिर 1000 – 800 वर्ष का पुराना मन्दिर हैं । बोला जाता है की 452 वर्ष के इतिहास में 32 बार यह रथयात्रा नहीं हुई थी । यवनों का आक्रमण जब जब मन्दिर के उपर हुआ है तब तब सेवक और राज पुरुषों ने अपने भगवान् की मूर्त्तियों को सुरक्षित रखने के लिए हर प्रयास किया हैं और सफल भी हुआ हैं । कलापाहाड के आक्रमण के कारण 1568 से 1577 तक, मिर्जा खुरम् का आक्रमण के कारण 1601 में, सुबेदार हासिम् खान का आक्रमण के कारण 1607 में, कल्याण मल्ल का आक्रमण के कारण 1611 में, फिर से कल्याण मल्ल का आक्रमण के कारण 1617 में, सुबेदार अहम्मद बेग् का आक्रमण के कारण 1621 में, सुबेदार एकाम्र सिंह का आक्रमण के कारण 1692 से 1707 तक और अन्त में महम्मद तकि खाँ का आक्रमण के कारण 1771 में यह रथयात्रा नहीं हुई थी । (ओडिआ भाषा में प्रकाशित सम्बाद पत्र ‘समाज’, 19 जुन् 2020, पृ. सं. 2) इस तरह के कारण के विना यदि रथयात्रा नहीं होती तो किम्बदन्ती के अनुसार फिर बारह साल तक यह यात्रा अनुष्ठित नहीं हो पाती । इसलिए इस साल कोरोना महामारी की करालता में भक्तों के विना और जन समागम के विना सुप्रीम कोर्ट के द्वारा निर्द्दिष्ट शर्तों का पालन करते हुए यह यात्रा आज अनुष्ठित हुई । यह साल श्रीमन्दिर और ओडिशा के इतिहास में लिपिबद्ध होगा । इसलिए सोचा प्रभु श्रीजगन्नाथ जी को लेकर संस्कृत में लिखे हुए एक भक्ति गीत के संग्रह को वागर्थ के लिए प्रस्तुत किया जाए|


     कवि बनमाली बिश्वाल संस्कृत काव्य, कथा, समीक्षा और शोध क्षेत्र में एक यशःस्वी नाम हैं । अद्यावधि कवि की 25 कृतियां प्रकाशित हैं । इस दारुब्रह्म नामक भक्ति गीतों के संग्रह में कवि ने अपने हृदय को भगवान् के समीप खोल दिया हैं । स्तुति भी की हैं, अभिमान भी किया हैं, अभियोग भी किया हैं, गाली भी दिया हैं और गाली के छल में स्तुति (व्याज स्तुति) भी की हैं । भक्त के लिए भगवान् के अतिरिक्त और कोई इतना अन्तरतम नहीं होता हैं कि सारे मनोभाव को शब्दों में न कहने पर भी जान लिया जाए। ओडिआ भाषा में पारम्परिक कवियों की रचनायों की आधार पर अङ्कित यह भक्ति गुच्छ संस्कृत में कवि का सरल भाषा प्रयोग में सुन्दर है । जगन्नाथ संस्कृति को समझने के लिए कवि ने अन्त में चार परिशिष्टों में पार्श्वदेवता शीर्षकों से काव्य संग्रह में व्यवहृत कुछ पारिभाषिक शब्दावली, शिखरिणी छन्द में छन्दायित आदि शङ्कराचार्य विरचित श्रीजगन्नाथाष्टकम्, श्रीजगन्नाथ जी को लेकर प्रचलित किम्बदन्तियों का संक्षिप्त परिचय जो बाद में कवि ने जगन्नाथतरितम् शीर्षक से किम्बदन्ती कथा संग्रह में विस्तारित किया है  और अन्तिम पार्श्वदेवता में (परिशिष्ट में) संस्कृत और ओडिआ भाषा का प्राणाणिक ग्रन्थों से श्रीजगन्नाथ और जगन्नाथ संस्कृति विषयक उद्धरणों का संग्रह दिया गया हैं । इस संग्रह के प्रारम्भ में प्रस्तावना में सम्माननीय प्रौढ कवि जगन्नाथ पाठक जी ने भी श्रीजगन्नाथ के बारे में प्राक् सूचना दी है । कवि ने स्वयं काव्य की मुखशाला में संस्कृत में और अंग्रेजी में प्रस्तुत पृष्ठभूमि में श्रीजगन्नाथ और उनकी अनोखी संस्कृति को उल्लिखित किया हैं ।

               निराकार निर्गुण ब्रह्म का सगुण साकार प्रतिबिम्ब है श्रीजगन्नाथ । स्वतन्त्र लक्षण युक्त नीम के काष्ठ से निर्मित ब्रह्म के प्रतीक को दारुब्रह्म कहा जाता है । वह एक प्रतीक है अनन्तता और असीमीतता का-

अर्धनिर्मित-देवस्त्वं पूर्णदारुब्रह्म
भक्तनिमित्तं वहसि ‘जगन्नाथ’नाम ।।

सर्व धर्म समन्वय, साम्यवाद, मैत्री, एकता का प्रतीक है जगन्नाथ संस्कृति । जैन, बौद्ध, शबर संस्कृति, शाक्त, शैव, वैष्णव, गाणपत्य, सौर, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, विशुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, द्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद आदि मत, पथ और दर्शनों का समन्वय देखने को मिलता है श्रीजगन्नाथ तत्त्व में । सारे मतवाद, सम्प्रदाय और दर्शन अपनी दृष्टि और पथ लेकर यहाँ आते है । पर सभी उन में समाहित हो गये है । उभय निगम और  आगम पद्धतियों से उनकी पूजा होती है । भगवान् को पाने का सबसे सरल और सुगम्य मार्ग भक्ति है । श्रीचैतन्य के षोडश शताब्दी में पुरी आगमन से गौडीय वैष्णव मत का प्रचार प्रसार हुआ जो स्वयं को राधा भाव में निमग्न कर सम्मुख में श्रीजगन्नाथ को रखते हुए तल्लीन होते थे और उनमें एकाकार हो जाते थे । यह एकाकार भाव को उत्कलीय वैष्णव परम्परा उससे पहले श्रीजगन्नाथ की मूर्त्ति में आरोपित कर चुका था । कृष्णवर्ण में पीत वर्ण का समावेश राधाकृष्ण की युगल मूर्त्ति के प्रतीक माना जाता हैं -

राधाप्रेममत्तं प्रभुं रङ्गाधरं
गोपीमनोहरं श्रीमुरलीधरम् ।
आगतोऽस्मि ... ।।
(आगतोऽस्मि द्रष्टुं त्वत्कृष्णवदनम्, पृ. सं. 74)

कुल 62 गीतों के स्तबक में श्रीजगन्नाथ को भक्ति अर्घ्य समर्पित करते हुए कवि ने जगन्नाथ तत्त्व, संस्कृति, किम्बदन्ती, इतिहास, साहित्य, दर्शन और उत्कलीय मन्दिर निर्माण कला, सौन्दर्य की ओर संकेत भी किया है । प्रथम स्तवक ‘श्रीजगन्नाथस्याखिलं मधुरम्’ में श्रीवल्लभाचार्य कृत मधुराष्टक की छाया है । (पृ. सं. 29) ‘कृष्णकमलम्’ नामक तृतीय स्तवक में भाव, लय और सौन्दर्य का मेल देखिए –

नभसि शोभते चन्द्रः
तडाग-जले कुमुदः ।
पश्य पश्य श्रीमन्दिरे
शोभते कृष्णकमलम् ।।
(पृ. सं. 31)

और

स्वर्गस्य सर्वमैश्वर्यं
श्रीक्षेत्रे करोति राज्यम् ।
तद्रूपमाधुर्ये सखि !
विश्राम्यति प्राण-पक्षी ।।
।(पृ. सं. 32)

सत युग में अवन्ती के राजा परम विष्णु भक्त राजा इन्द्रद्युम्न ने स्वप्नादेश से पुरुषोत्तम क्षेत्र में पहले श्रीजगन्नाथ का मन्दिर और विग्रह निर्माण करवाया था । उनकी राणी गुण्डिचा के नाम से उनकी उत्पत्ति स्थल नामित है और उस स्मृति को उजागर करने के लिए प्रभु प्रतिवर्ष रथयात्रा में अपनी मातृरूपा मौसी के स्नेह में आबद्ध होकर दीर्घ पथ में (संस्कृत में कवि ने प्रयोग किया है) या बड दाण्ड में (श्रीमन्दिर से श्रीगुण्डिचा मन्दिर का रास्ता का नाम) निकलते है -

गुण्डिचाहं मातृस्वसा श्रीजगन्नाथस्य
जननीवदात्मीयता मयि सदा तस्य ।
न देवकी जन्मदात्री न चास्मि यशोदा
गुण्डिचाऽहं मयि तस्यास्ति महती श्रद्धा ।।
(गुण्डिचा, पृ. सं. 33)

फिर दीर्धपथ (बडदाण्ड) भी बोल उठता है –

नन्दिघोषः तालध्वजोऽथ दर्पदलनं
रथचक्रस्पर्शात् धन्यं भवेन्मे जीवनम् ।
न परिवर्तनं मयि घोरे कलिकाले
यथापूर्वमादृतोsस्मि पुण्ये नीलाचले ।।
(दीर्घपथस्य आत्मकथा, पृ, सं. 46)

अपने प्रभु के विना भक्त विरही होता है । इसलिए कवि ने लिखा है –

अहमस्मि त्वदभावे जल-हीन-तडागस्य मीनः
अमावास्या-रात्रौ कदा रमते किं कुमुदस्य मनः ?
***

जीवितुं न जानाम्यहं त्वया विना प्रभो जगन्नाथ !
दर्शनं देहि मेऽन्यथा भविष्यति कश्चित् पक्षपातः ।। 
(जगन्नाथं विना, पृ. सं. 34)

कवि ने उत्कलीय वैष्णवीय परम्परा के पञ्चसखायों में अन्यतम बलराम दास के अभिमान को मार्मिक ढङ्ग से ‘मैत्रीभङ्गः’ (पृ. सं. 37) शीर्षक में दर्शाया है । ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन  स्नान वेदि में स्नान के बाद तीनों विग्रह अपनी मानुषी लीला में 14 दिन तक ज्वर पीडित होते हैं । आषाढ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सुस्थ होने के बाद पहले दर्शन देते हैं । उसे नव यौवन दर्शन कहते हैं । जिस साल दो आषाढ पडता हैं उस साल प्रभु अपना पुराने विग्रह छोडकर नूतन विग्रह में स्थापित होते हैं और उसी नव यौवन की तिथि में पहला दर्शन देते हैं । विग्रह परिवर्तन को नव कलेवर कहा जाता है जो 2015 में हुआ है ।-

वासांसि जीर्णनि परिवर्तयति यथा संसारे मनुष्यः ।
श्रीजगन्नाथस्य नव-कलेवरे सधवास्ताः देवदास्यः ।। 
(नवयौवनम्, पृ. सं. 39)

अशेष करुणा कटाक्ष से प्रभु सबको मुक्ति के पथ पर ले जाते हैं । चाहे वह धनी हो मानी हो गुणी हो ज्ञानी हो या फिर भोगी हो योगी हो या त्यागी हो -

पापिनस्तरन्ति तापिनस्तरन्ति तरन्ति योगि-भोगिनः ।
तारयसि सर्वान् विविधनरकात् हे महोदधिपुलिन ! 
(स्वर्ग-द्वारम्, पृ. सं. 42)

ओडिआ साहित्य में कवियों ने श्रीजगन्नाथ को कृष्ण मेघ के साथ उपमित किया है । जैसे कृष्ण मेघ जरूर बरसता है, ग्रीष्म सन्ताप दूर करके धरती को सस्य-श्यामला बनाता है वैसे ही यह जगन्नाथ रूपी कृष्ण मेघ बारह महीनों में उनके श्रीक्षेत्र आकाश में रहता हैं और संसार ताप से संतापित प्राणियों के लिए करुणा बरसाता हैं । भक्त जन चातक होकर अपना जीवन आकाश में प्रतीक्षा करते हैं -

श्रीक्षेत्र-नभसि कृष्णमेघः कश्चिद् वर्षति द्वादशमासान् ,
तृषार्त-कृषक-चातकानां सम्यक् शमयति क्षुधा-तृषाः ।
पुण्ये नीलाचले कृष्णमेघ-जलं पिबन्ति भावुकाः भक्ताः
तज्जलेन सिक्ताः सानन्दं भजने कीर्तने सन्ति प्रमत्ताः । 
(कृष्ण-मेघः, पृ. सं. 53)

भगवान् ने जो मनुष्य जन्म दिया है और उनको मनन और ध्यान करने का सुयोग दिया उसके लिए भक्त प्रभु के पाश हमेशा के लिए ऋणी है । आत्मा का परमात्मा प्राप्ति प्रति जीवन का जीवन लक्ष्य है । इस तथ्य को कितना सुन्दर पंक्तिओं में कहा गया है देखिए –

तिष्ठतु आवयोर्भावः युगात् युगान्तरम्,
जगन्नाथ ! न कदापि मां कुरुष्व परम् ।
प्रायच्छश्चेत् जन्म मह्यं नश्वरे संसारे,
विवशोऽस्मि प्रचलितुं त्वन्माया-जञ्जाले ।
भविष्यति अज्ञानेन यदि कश्चिद् द्वेषः,
पन्थानं दर्शयिष्यसि प्रभो स्वर्णवेश !
मयि तव महद् ऋणमहमधमर्णः,
प्राप्य ते उत्तमर्णत्वम् अहमस्मि धन्यः ।
अतिक्षुद्रा प्रार्थनाऽस्ति त्वत्सविधे मम,
शरीरेण सहात्माऽस्तु त्वत्पदे विलीनः ।

यद्यपि हम जगन्नाथ को श्रीकृष्ण का स्वरूप मानते हैं फिर भी यहाँ राधा स्वरूपतः नहीं है और नहीं है राधा को पुकारने वाली वंशी । अतः कवि की नजर में राधा अभियोग करती है राधाया अभियोगः स्तवक में । भव रोग दूर करने के लिए वह वैद्य हैं कृष्णवैद्य शीर्षक कविता की पंक्तियों में । भक्त का अभिमान ‘अभिमानम्’ शीर्षक में और गालि के व्याज में स्तुति प्रसिद्ध ओडिओ कवि कविसूर्य बलदेव रथ का ‘सर्पजणाण’ के आधार पर ‘भुजगोऽयं जगन्नाथः’ शीर्षक में निबद्ध हैं -

भयेन त्वां कृपा-सिन्धुः वदन्ति बुधाः, फलं न मिलति किञ्चित् भजन्ति मुधा ।
***
कर्णौ न स्तः प्रसिद्ध्यति नयनश्रवाः, चक्र-मुखे न किमस्ति श्रवणाभावः ।
विस्तृतफणत्वात् सर्पस्य नाम भोगी षड्पञ्चाशत्भोगं प्राप्य त्वमपि भोगी ।

भारतवर्ष के चारों धामों में से पुरी क्षेत्र भोग क्षेत्र के नाम से जाना जाता है । प्रतिदिन श्रीजगन्नाथ को 56 प्रकार का प्रसाद भोग लगाया जाता है । इस 56 संख्या का महत्त्वों से एक प्रतीक यह है की माँ यशोदा रोज श्रीकृष्ण को 8 प्रकार का खाना खिलाती थी । जब गिरि गोवर्धन धारण किये तब सात दिन तक विना खाये पिये सबको रक्षा करने में लगे हुए थे । उसके बाद माँ यशोदा ने 8x7 = 56 प्रकार का खाना खिलाया था। इसलिए यहाँ प्रतिदिन 56 प्रकार का भोग होता है और प्रभु को निन्दापरक स्तुति में भक्त भोगी कहता है । आत्मा का परमात्मा से मिलन रूप अहरह चेष्टा प्रिय मिलन जैसा की सज्जता ही है । ‘अभिसारिका’ कविता में यह भाव उजागर है ।

मिलिष्यमि सखि ! अद्य प्रियतमं
प्रिय-मिलनाय अहमुत्सुका,
जगन्नाथः मम प्रणयी पुरुषः
अहमस्मि तस्य अभिसारिका ।
 (पृ. सं. 71)

‘जगन्नाथ ... हो हो... किछि मागु नाहिँ तोतो... हे हे ...’ यवन भक्त सालबेग द्वारा रचित इस प्रसिद्ध ओडिआ भजन की छाया में कवि ने लिखा है ‘न किञ्चिद्याचेऽहम्’ (पृ. सं. 73) ।
श्रीकृष्ण का जिस शरीराङ्ग को अग्नि ने भस्मसात् नहीं कर पाया उस शरीराङ्ग श्रीजगन्नाथ विग्रह में ब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित हैं । दारु मूर्त्ति में ब्रह्म की प्रतिष्ठा के कारण वह दारुब्रह्म कहलाते हैं जो इस गीति कविता संग्रह का नाम है ।

ज्वलदेव दारु यदवशिष्यते गण्डुकी-सरितस्तीरे,
जले भासमानमागतं तद्दारु पूते महोदधि-तीरे ।
 (दारुब्रह्म, पृ. सं. 93)

यद्यपि यह संस्कृत के पारम्परिक छन्द में निबद्ध नहीं हैं फिर भी ओडिआ भजन की शैली में और छाया में लिखी हुई इन गीति कविताओं का भक्ति भाव और श्रीजगन्नाथ का उभय निर्गुण और सगुण उपासना वर्णन ही मुख्य विषय है । ओडिआ साहित्य में अनेक काव्य संस्कृत साहित्य को उपजीव्य बना कर रचित हुए है और यह काव्य संग्रह ओडिआ भजनों के आधार पर हुआ है । अन्य भारतीय भाषाओं में इस प्रकार ढेर सारे उदाहरण रहा ही होगा ।
                           डॉ. पराम्बा श्रीयोगमाया


सहायक आचार्य, स्नातकोत्तर वेद विभाग, श्रीजगन्नाथ संस्कृत   विश्वविद्यालय, श्रीविहार, पुरी 752003, ओडिशा 
सम्पर्क सूत्र - 8917554392

 Lord Jagannatha, worshipped as Darubrahma at Nilachala (Puri) is lord Shrikrishna himself. I am glad to share a review of my Darubrahma ( Sanskrit songs based on the glorification of lord Jagannath) by Dr. Parambashree Yogamaya posted in Vagarthaadhunikasanskrit.blogspot.com by Dr. Kaushala Tiwari during rathayatra this year. I thank both of them for their respective efforts


दारुब्रह्म - संस्कृत में लिखित गेयतापूर्ण भक्ति-गीतिकविताओं का संग्रह

कृति – दारुब्रह्म (The Wooden Deity) 
[ओडिआ भजनों के छाया पर संस्कृत में लिखित गेयतापूर्ण भक्ति-गीतिकविताओं का संग्रह]
कवि – डा. बनमाली बिश्वाल
प्रकाशक – पद्मजा प्रकाशन, 48/4 A, मास्टर जहरुल हसन् रोड, पुरानी सब्जी मण्डी, कटरा, इलाहाबाद  – 211002
प्रकाशन वर्ष – 2001,
मूल्य – Rs. 100/-
पृ. सं. – 120

आज आषाढ माह की शुक्ल द्वितीया तिथि है। ओडिशा राज्य की पुरी नगरी में अवस्थित महाप्रभु श्रीजगन्नाथ अपने अग्रज बलभद्र देव और बहन सुभद्रा देवी के साथ अपने जन्मवेदि को नव दिनात्मक यात्रा में जाते हैं । इस यात्रा को रथयात्रा, घोषयात्रा, नव दिनात्मक यात्रा, अन्तर्वेदि यात्रा, गुण्डिचा यात्रा (राणी गुण्डिचा के घर को जाते हैं इसलिए) आदि नाम से जाना जाता हैं । हर साल 10-15 लाख तक लोग इस समारोह में सम्मिलित होते हैं । लौटने के बाद आषाढ शुक्ल एकादशी की तिथि में श्रीमन्दिर के सामने सुसज्जित रथों के ऊपर स्वर्ण आभूषणों से श्रीविग्रहों को आभूषित किया जाता है । साल भर के 32-33 वेशों में से यह सबसे आकर्षक वेश हैं और गर्भगृह के बाहर रथों पर कड़ी सुरक्षा के साथ किया जाता हैं । वर्तमान अवस्थित श्रीजगन्नाथ मन्दिर 1000 – 800 वर्ष का पुराना मन्दिर हैं । बोला जाता है की 452 वर्ष के इतिहास में 32 बार यह रथयात्रा नहीं हुई थी । यवनों का आक्रमण जब जब मन्दिर के उपर हुआ है तब तब सेवक और राज पुरुषों ने अपने भगवान् की मूर्त्तियों को सुरक्षित रखने के लिए हर प्रयास किया हैं और सफल भी हुआ हैं । कलापाहाड के आक्रमण के कारण 1568 से 1577 तक, मिर्जा खुरम् का आक्रमण के कारण 1601 में, सुबेदार हासिम् खान का आक्रमण के कारण 1607 में, कल्याण मल्ल का आक्रमण के कारण 1611 में, फिर से कल्याण मल्ल का आक्रमण के कारण 1617 में, सुबेदार अहम्मद बेग् का आक्रमण के कारण 1621 में, सुबेदार एकाम्र सिंह का आक्रमण के कारण 1692 से 1707 तक और अन्त में महम्मद तकि खाँ का आक्रमण के कारण 1771 में यह रथयात्रा नहीं हुई थी । (ओडिआ भाषा में प्रकाशित सम्बाद पत्र ‘समाज’, 19 जुन् 2020, पृ. सं. 2) इस तरह के कारण के विना यदि रथयात्रा नहीं होती तो किम्बदन्ती के अनुसार फिर बारह साल तक यह यात्रा अनुष्ठित नहीं हो पाती । इसलिए इस साल कोरोना महामारी की करालता में भक्तों के विना और जन समागम के विना सुप्रीम कोर्ट के द्वारा निर्द्दिष्ट शर्तों का पालन करते हुए यह यात्रा आज अनुष्ठित हुई । यह साल श्रीमन्दिर और ओडिशा के इतिहास में लिपिबद्ध होगा । इसलिए सोचा प्रभु श्रीजगन्नाथ जी को लेकर संस्कृत में लिखे हुए एक भक्ति गीत के संग्रह को वागर्थ के लिए प्रस्तुत किया जाए|


     कवि बनमाली बिश्वाल संस्कृत काव्य, कथा, समीक्षा और शोध क्षेत्र में एक यशःस्वी नाम हैं । अद्यावधि कवि की 25 कृतियां प्रकाशित हैं । इस दारुब्रह्म नामक भक्ति गीतों के संग्रह में कवि ने अपने हृदय को भगवान् के समीप खोल दिया हैं । स्तुति भी की हैं, अभिमान भी किया हैं, अभियोग भी किया हैं, गाली भी दिया हैं और गाली के छल में स्तुति (व्याज स्तुति) भी की हैं । भक्त के लिए भगवान् के अतिरिक्त और कोई इतना अन्तरतम नहीं होता हैं कि सारे मनोभाव को शब्दों में न कहने पर भी जान लिया जाए। ओडिआ भाषा में पारम्परिक कवियों की रचनायों की आधार पर अङ्कित यह भक्ति गुच्छ संस्कृत में कवि का सरल भाषा प्रयोग में सुन्दर है । जगन्नाथ संस्कृति को समझने के लिए कवि ने अन्त में चार परिशिष्टों में पार्श्वदेवता शीर्षकों से काव्य संग्रह में व्यवहृत कुछ पारिभाषिक शब्दावली, शिखरिणी छन्द में छन्दायित आदि शङ्कराचार्य विरचित श्रीजगन्नाथाष्टकम्, श्रीजगन्नाथ जी को लेकर प्रचलित किम्बदन्तियों का संक्षिप्त परिचय जो बाद में कवि ने जगन्नाथतरितम् शीर्षक से किम्बदन्ती कथा संग्रह में विस्तारित किया है  और अन्तिम पार्श्वदेवता में (परिशिष्ट में) संस्कृत और ओडिआ भाषा का प्राणाणिक ग्रन्थों से श्रीजगन्नाथ और जगन्नाथ संस्कृति विषयक उद्धरणों का संग्रह दिया गया हैं । इस संग्रह के प्रारम्भ में प्रस्तावना में सम्माननीय प्रौढ कवि जगन्नाथ पाठक जी ने भी श्रीजगन्नाथ के बारे में प्राक् सूचना दी है । कवि ने स्वयं काव्य की मुखशाला में संस्कृत में और अंग्रेजी में प्रस्तुत पृष्ठभूमि में श्रीजगन्नाथ और उनकी अनोखी संस्कृति को उल्लिखित किया हैं ।

               निराकार निर्गुण ब्रह्म का सगुण साकार प्रतिबिम्ब है श्रीजगन्नाथ । स्वतन्त्र लक्षण युक्त नीम के काष्ठ से निर्मित ब्रह्म के प्रतीक को दारुब्रह्म कहा जाता है । वह एक प्रतीक है अनन्तता और असीमीतता का-

अर्धनिर्मित-देवस्त्वं पूर्णदारुब्रह्म
भक्तनिमित्तं वहसि ‘जगन्नाथ’नाम ।।

सर्व धर्म समन्वय, साम्यवाद, मैत्री, एकता का प्रतीक है जगन्नाथ संस्कृति । जैन, बौद्ध, शबर संस्कृति, शाक्त, शैव, वैष्णव, गाणपत्य, सौर, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, विशुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, द्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद आदि मत, पथ और दर्शनों का समन्वय देखने को मिलता है श्रीजगन्नाथ तत्त्व में । सारे मतवाद, सम्प्रदाय और दर्शन अपनी दृष्टि और पथ लेकर यहाँ आते है । पर सभी उन में समाहित हो गये है । उभय निगम और  आगम पद्धतियों से उनकी पूजा होती है । भगवान् को पाने का सबसे सरल और सुगम्य मार्ग भक्ति है । श्रीचैतन्य के षोडश शताब्दी में पुरी आगमन से गौडीय वैष्णव मत का प्रचार प्रसार हुआ जो स्वयं को राधा भाव में निमग्न कर सम्मुख में श्रीजगन्नाथ को रखते हुए तल्लीन होते थे और उनमें एकाकार हो जाते थे । यह एकाकार भाव को उत्कलीय वैष्णव परम्परा उससे पहले श्रीजगन्नाथ की मूर्त्ति में आरोपित कर चुका था । कृष्णवर्ण में पीत वर्ण का समावेश राधाकृष्ण की युगल मूर्त्ति के प्रतीक माना जाता हैं -

राधाप्रेममत्तं प्रभुं रङ्गाधरं
गोपीमनोहरं श्रीमुरलीधरम् ।
आगतोऽस्मि ... ।।
(आगतोऽस्मि द्रष्टुं त्वत्कृष्णवदनम्, पृ. सं. 74)

कुल 62 गीतों के स्तबक में श्रीजगन्नाथ को भक्ति अर्घ्य समर्पित करते हुए कवि ने जगन्नाथ तत्त्व, संस्कृति, किम्बदन्ती, इतिहास, साहित्य, दर्शन और उत्कलीय मन्दिर निर्माण कला, सौन्दर्य की ओर संकेत भी किया है । प्रथम स्तवक ‘श्रीजगन्नाथस्याखिलं मधुरम्’ में श्रीवल्लभाचार्य कृत मधुराष्टक की छाया है । (पृ. सं. 29) ‘कृष्णकमलम्’ नामक तृतीय स्तवक में भाव, लय और सौन्दर्य का मेल देखिए –

नभसि शोभते चन्द्रः
तडाग-जले कुमुदः ।
पश्य पश्य श्रीमन्दिरे
शोभते कृष्णकमलम् ।।
(पृ. सं. 31)

और

स्वर्गस्य सर्वमैश्वर्यं
श्रीक्षेत्रे करोति राज्यम् ।
तद्रूपमाधुर्ये सखि !
विश्राम्यति प्राण-पक्षी ।।
।(पृ. सं. 32)

सत युग में अवन्ती के राजा परम विष्णु भक्त राजा इन्द्रद्युम्न ने स्वप्नादेश से पुरुषोत्तम क्षेत्र में पहले श्रीजगन्नाथ का मन्दिर और विग्रह निर्माण करवाया था । उनकी राणी गुण्डिचा के नाम से उनकी उत्पत्ति स्थल नामित है और उस स्मृति को उजागर करने के लिए प्रभु प्रतिवर्ष रथयात्रा में अपनी मातृरूपा मौसी के स्नेह में आबद्ध होकर दीर्घ पथ में (संस्कृत में कवि ने प्रयोग किया है) या बड दाण्ड में (श्रीमन्दिर से श्रीगुण्डिचा मन्दिर का रास्ता का नाम) निकलते है -

गुण्डिचाहं मातृस्वसा श्रीजगन्नाथस्य
जननीवदात्मीयता मयि सदा तस्य ।
न देवकी जन्मदात्री न चास्मि यशोदा
गुण्डिचाऽहं मयि तस्यास्ति महती श्रद्धा ।।
(गुण्डिचा, पृ. सं. 33)

फिर दीर्धपथ (बडदाण्ड) भी बोल उठता है –

नन्दिघोषः तालध्वजोऽथ दर्पदलनं
रथचक्रस्पर्शात् धन्यं भवेन्मे जीवनम् ।
न परिवर्तनं मयि घोरे कलिकाले
यथापूर्वमादृतोsस्मि पुण्ये नीलाचले ।।
(दीर्घपथस्य आत्मकथा, पृ, सं. 46)

अपने प्रभु के विना भक्त विरही होता है । इसलिए कवि ने लिखा है –

अहमस्मि त्वदभावे जल-हीन-तडागस्य मीनः
अमावास्या-रात्रौ कदा रमते किं कुमुदस्य मनः ?
***

जीवितुं न जानाम्यहं त्वया विना प्रभो जगन्नाथ !
दर्शनं देहि मेऽन्यथा भविष्यति कश्चित् पक्षपातः ।। 
(जगन्नाथं विना, पृ. सं. 34)

कवि ने उत्कलीय वैष्णवीय परम्परा के पञ्चसखायों में अन्यतम बलराम दास के अभिमान को मार्मिक ढङ्ग से ‘मैत्रीभङ्गः’ (पृ. सं. 37) शीर्षक में दर्शाया है । ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन  स्नान वेदि में स्नान के बाद तीनों विग्रह अपनी मानुषी लीला में 14 दिन तक ज्वर पीडित होते हैं । आषाढ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सुस्थ होने के बाद पहले दर्शन देते हैं । उसे नव यौवन दर्शन कहते हैं । जिस साल दो आषाढ पडता हैं उस साल प्रभु अपना पुराने विग्रह छोडकर नूतन विग्रह में स्थापित होते हैं और उसी नव यौवन की तिथि में पहला दर्शन देते हैं । विग्रह परिवर्तन को नव कलेवर कहा जाता है जो 2015 में हुआ है ।-

वासांसि जीर्णनि परिवर्तयति यथा संसारे मनुष्यः ।
श्रीजगन्नाथस्य नव-कलेवरे सधवास्ताः देवदास्यः ।। 
(नवयौवनम्, पृ. सं. 39)

अशेष करुणा कटाक्ष से प्रभु सबको मुक्ति के पथ पर ले जाते हैं । चाहे वह धनी हो मानी हो गुणी हो ज्ञानी हो या फिर भोगी हो योगी हो या त्यागी हो -

पापिनस्तरन्ति तापिनस्तरन्ति तरन्ति योगि-भोगिनः ।
तारयसि सर्वान् विविधनरकात् हे महोदधिपुलिन ! 
(स्वर्ग-द्वारम्, पृ. सं. 42)

ओडिआ साहित्य में कवियों ने श्रीजगन्नाथ को कृष्ण मेघ के साथ उपमित किया है । जैसे कृष्ण मेघ जरूर बरसता है, ग्रीष्म सन्ताप दूर करके धरती को सस्य-श्यामला बनाता है वैसे ही यह जगन्नाथ रूपी कृष्ण मेघ बारह महीनों में उनके श्रीक्षेत्र आकाश में रहता हैं और संसार ताप से संतापित प्राणियों के लिए करुणा बरसाता हैं । भक्त जन चातक होकर अपना जीवन आकाश में प्रतीक्षा करते हैं -

श्रीक्षेत्र-नभसि कृष्णमेघः कश्चिद् वर्षति द्वादशमासान् ,
तृषार्त-कृषक-चातकानां सम्यक् शमयति क्षुधा-तृषाः ।
पुण्ये नीलाचले कृष्णमेघ-जलं पिबन्ति भावुकाः भक्ताः
तज्जलेन सिक्ताः सानन्दं भजने कीर्तने सन्ति प्रमत्ताः । 
(कृष्ण-मेघः, पृ. सं. 53)

भगवान् ने जो मनुष्य जन्म दिया है और उनको मनन और ध्यान करने का सुयोग दिया उसके लिए भक्त प्रभु के पाश हमेशा के लिए ऋणी है । आत्मा का परमात्मा प्राप्ति प्रति जीवन का जीवन लक्ष्य है । इस तथ्य को कितना सुन्दर पंक्तिओं में कहा गया है देखिए –

तिष्ठतु आवयोर्भावः युगात् युगान्तरम्,
जगन्नाथ ! न कदापि मां कुरुष्व परम् ।
प्रायच्छश्चेत् जन्म मह्यं नश्वरे संसारे,
विवशोऽस्मि प्रचलितुं त्वन्माया-जञ्जाले ।
भविष्यति अज्ञानेन यदि कश्चिद् द्वेषः,
पन्थानं दर्शयिष्यसि प्रभो स्वर्णवेश !
मयि तव महद् ऋणमहमधमर्णः,
प्राप्य ते उत्तमर्णत्वम् अहमस्मि धन्यः ।
अतिक्षुद्रा प्रार्थनाऽस्ति त्वत्सविधे मम,
शरीरेण सहात्माऽस्तु त्वत्पदे विलीनः ।

यद्यपि हम जगन्नाथ को श्रीकृष्ण का स्वरूप मानते हैं फिर भी यहाँ राधा स्वरूपतः नहीं है और नहीं है राधा को पुकारने वाली वंशी । अतः कवि की नजर में राधा अभियोग करती है राधाया अभियोगः स्तवक में । भव रोग दूर करने के लिए वह वैद्य हैं कृष्णवैद्य शीर्षक कविता की पंक्तियों में । भक्त का अभिमान ‘अभिमानम्’ शीर्षक में और गालि के व्याज में स्तुति प्रसिद्ध ओडिओ कवि कविसूर्य बलदेव रथ का ‘सर्पजणाण’ के आधार पर ‘भुजगोऽयं जगन्नाथः’ शीर्षक में निबद्ध हैं -

भयेन त्वां कृपा-सिन्धुः वदन्ति बुधाः, फलं न मिलति किञ्चित् भजन्ति मुधा ।
***
कर्णौ न स्तः प्रसिद्ध्यति नयनश्रवाः, चक्र-मुखे न किमस्ति श्रवणाभावः ।
विस्तृतफणत्वात् सर्पस्य नाम भोगी षड्पञ्चाशत्भोगं प्राप्य त्वमपि भोगी ।

भारतवर्ष के चारों धामों में से पुरी क्षेत्र भोग क्षेत्र के नाम से जाना जाता है । प्रतिदिन श्रीजगन्नाथ को 56 प्रकार का प्रसाद भोग लगाया जाता है । इस 56 संख्या का महत्त्वों से एक प्रतीक यह है की माँ यशोदा रोज श्रीकृष्ण को 8 प्रकार का खाना खिलाती थी । जब गिरि गोवर्धन धारण किये तब सात दिन तक विना खाये पिये सबको रक्षा करने में लगे हुए थे । उसके बाद माँ यशोदा ने 8x7 = 56 प्रकार का खाना खिलाया था। इसलिए यहाँ प्रतिदिन 56 प्रकार का भोग होता है और प्रभु को निन्दापरक स्तुति में भक्त भोगी कहता है । आत्मा का परमात्मा से मिलन रूप अहरह चेष्टा प्रिय मिलन जैसा की सज्जता ही है । ‘अभिसारिका’ कविता में यह भाव उजागर है ।

मिलिष्यमि सखि ! अद्य प्रियतमं
प्रिय-मिलनाय अहमुत्सुका,
जगन्नाथः मम प्रणयी पुरुषः
अहमस्मि तस्य अभिसारिका ।
 (पृ. सं. 71)

‘जगन्नाथ ... हो हो... किछि मागु नाहिँ तोतो... हे हे ...’ यवन भक्त सालबेग द्वारा रचित इस प्रसिद्ध ओडिआ भजन की छाया में कवि ने लिखा है ‘न किञ्चिद्याचेऽहम्’ (पृ. सं. 73) ।
श्रीकृष्ण का जिस शरीराङ्ग को अग्नि ने भस्मसात् नहीं कर पाया उस शरीराङ्ग श्रीजगन्नाथ विग्रह में ब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित हैं । दारु मूर्त्ति में ब्रह्म की प्रतिष्ठा के कारण वह दारुब्रह्म कहलाते हैं जो इस गीति कविता संग्रह का नाम है ।

ज्वलदेव दारु यदवशिष्यते गण्डुकी-सरितस्तीरे,
जले भासमानमागतं तद्दारु पूते महोदधि-तीरे ।
 (दारुब्रह्म, पृ. सं. 93)

यद्यपि यह संस्कृत के पारम्परिक छन्द में निबद्ध नहीं हैं फिर भी ओडिआ भजन की शैली में और छाया में लिखी हुई इन गीति कविताओं का भक्ति भाव और श्रीजगन्नाथ का उभय निर्गुण और सगुण उपासना वर्णन ही मुख्य विषय है । ओडिआ साहित्य में अनेक काव्य संस्कृत साहित्य को उपजीव्य बना कर रचित हुए है और यह काव्य संग्रह ओडिआ भजनों के आधार पर हुआ है । अन्य भारतीय भाषाओं में इस प्रकार ढेर सारे उदाहरण रहा ही होगा ।
                           डॉ. पराम्बा श्रीयोगमाया


सहायक आचार्य, स्नातकोत्तर वेद विभाग, श्रीजगन्नाथ संस्कृत   विश्वविद्यालय, श्रीविहार, पुरी 752003, ओडिशा 
सम्पर्क सूत्र - 8917554392